काफी मुश्किल होता है कुछ लिख पाना। मेरी समझ में ही नहीं आता है कि कैसे इतने बड़े लेखक इतना कुछ लिख गए। मुंशी प्रेमचंद ने कैसे इतना विपुल साहित्य लिखा होगा। उस समय तो कंप्यूटर भी नहीं हुआ करते थे। टाइपिंग भी नहीं होती थी। फिर इतना साहित्य का भंडार
मेरे पास तो लैपटॉप है। अपना कंप्यूटर है। फिर भी कहां कुछ लिख पाता हूं। अमर उजाला में पहली नौकरी के दौरान ब्लॉग बनाया था। तीन दिन तो लग गए थे ब्लॉग का नाम खोजने में। क्या रखा जाए भगवान। कई ब्लॉग सर्च किए। चलो ये रख लेते हैं। टीप लेते हैं किसी का। या किसी से पूछ लेते हैं। लेकिन मन नहीं माना। मन ने यही कहा था कि रखेंगे तो अपना ही रखेंगे। इसलिए एक दिन बात ही बात में बतरस वाली बात आ गई। और फिर क्या था चौराहा हमने खुद से ही जोड़ लिया। एक बात तो तय है। जिस दिन नाम फाइनल किया था, उसी दिन ब्लॉग बना लिया था। अब वह कौन सी बात तय है। तय यह है कि जो ठान लेता हूं उसे पूरा कर के ही छोड़ता हूं चाहे लिखना हो या फिर सड़क से गुजरते ही मिठाई की दुकान पर गाजर का हलवा देखकर ललचाना हो। तो ऐसे तय कर लिए कि ब्लॉग बनेगा तो बनेगा और हम लिखेंगे।
लेकिन ब्लॉग बन तो गया। बतरस चौराहा ब्लॉगस्पाट डॉट कॉम। न हुआ तो बस एक काम। ई लिखने वाला। हमारे सीनियर कहते थे कि एक बार जो खबर लिखा करो, उसे कम से कम दो बार पढ़ करो। यहां साला हम लिखते वक्त भी नहीं पढ़ते तो लिखने के बाद क्या पढ़ते। खैर खबर तो जैसे तैसे लिख कर निकाल रहे थे। नहीं निकाल पाए तो बस ब्लॉग पर एकाध पोस्ट। लिख ही नहीं पाए महराज।
बहुत सोचे कि क्या लिखा जाए। ऐसा कौन सा साहित्य रच दिया जाए कि बड़े-बड़े साहित्यकार पानी मांगने लगें। अब हम ठहरे मूरख। दसवीं और बारहवीं पढ़े थे साइंस साइड यानी कि विज्ञान वर्ग से तो कूद के कर लिए बीएससी। बड़ी मुश्किल से फर्स्ट डिविजन पास हुए थे। आगे क्या हुआ। जब गाड़ी जिंदगी की मुश्किल लगी तो सोचे कि चलो अब एमएससी तो हो नहीं पाएगा, कुछ और किया जाता है। बचा क्या एमए। ओके। लेकिन किस विषय से। इतिहास से एमए करने के लिए बीए या स्नातक में इतिहास चाहिए। ऐसे ही अंग्रेजी से एमए के लिए स्नातक में अंग्रेजी। हिंदी का भी यही हाल था। गाड़ी यहीं आकर फंस गई। लेकिन साइबर कैफे में एक दिन ऐसे ही इंटरनेट की खाक छानते हुए हमें काशी हिंदू विश्वविद्यालय में चलने वाले एक कोर्स के बारे में मालूम हुआ। इसमें किसी भी विषय में स्नातक किया हुआ छात्र दाखिला ले सकता था। बस फिर क्या था। अप्लाई कर दिए। एग्जाम भी दे आए। दाखिला भी हो गया। दो साल जम के पढ़े। क्योंकि पता था कि अगर यहां नहीं कुछ कर पाए तो बाहर जाकर कुछ नहीं कर पाएंगे। सच में ऐसा ही हुआ। बाहर जाकर कुछ नहीं कर पाए।
जब दो गोल्ड मेडल लेकर बाहर निकले तो लगा कि बहुत बड़ा तीर मार कर आए हैं। मैदान में पता चला कि ऐसे बहुत से तीस मार खां इस मैदान में पहले से पड़े हैं। हम भी शामिल हो गए इस रेस में। बस फिर क्या था। पकड़ लिए एक अखबार। अमर उजाला।
पहली पोस्टिंग, रोहतक। हरियाणा। पद-ट्रेनी। पैसा- आठ हजार रूपया मासिक, वेतन के तौर पर एक स्टाइपेंड। हम भी करने में जुट गए। जी-जान से किए। इसी दौरान यह ब्लॉग बनाने का ख्याल आया था। ब्लॉग तो बना दिए लेकिन कुछ लिख नहीं पाए। अमर उजाला से दैनिक जागरण में चले गए। आठ हजार रूप्या मिलता था तो आठ महीना काम किया। फिर पंद्रह हजार मिलने लगा तो पंद्रह महीना काम किए। लेकिन इस दौरान पंद्रह मिनट का भी टाइम नहीं मिला कि कभी दस-पंद्रह लेख लिख कर अपने ब्लॉग पर डाल ही दे।
फिर जागरण की नौकरी छूटी और जयपुर में एक निजी विवि में अध्यापन व अध्ययन का मौका मिला। हंस वाला मीडिया का विशेषांक भी आ गया था। पढ़े उसको। फिर से ब्लॉग बनाने और लिखने वाला जोश जागा। तभी याद आया कि अरे जी, ब्लॉग तो बनाए थे। क्या हुआ उसका। उसे खोजे। नाम ही भुला गए थे। भला हो जी-मेल वालों का। मिल गया। दोबारा से लिखने के टॉपिक खोजने में कई दिन गुजार दिए। आज का भी दिन बीत गया था। रात भी बीतने वाली थी। लेकिन शाम बीतते-बीतते मन में यह ख्याल आया कि क्यों न कुछ लिखा जाए। असल में ख्याल आया था रवीश कुमार जी का ब्लॉग पढ़ के। उन्होंने कहा था कि कम से कम दो हजार शब्द प्रतिदिन लिखिए और कम से कम सौ पेज रोज पढ़िए। अब पढ़ने वाला काम तो नहीं हो पा रहा है लेकिन सोचे कि यहां यूनिवर्सिटी में तो बच्चे अंग्रेजी में पढ़ते-लिखते हैं। हमको भी करना पड़ता है। कहीं ऐसा न हो कि मैं अमर उजाला और दैनिक जागरण में करीब तीन साल के अपने टाइपिंग ज्ञान को ही न भूल जाउं। बस फिर क्या था। हमने भी प्रतिदिन लिखने की ठान ली।
उप्पर कहा है न कि जो ठान लेते हैं फिर कर के ही रहते हैं। तो हम शाम बीतते-बीतते लिखने बैठ गए। सोचे कि क्या लिखा जाए तो दिमाग में आया कि जब कुछ नहीं लिखने के लिए है तो इसी के बारे में लिख दिया जाए कि कुछ भी लिखने के नहीं सूझ रहा है।
लिखने बैठ गए। लिखने लगे तो याद आया कि पहला पोस्ट है या। क्यों न पहली पोस्ट के बारे में ही लिखा जाए कि इसका इतिहास और भूगोल क्या है। बस फिर क्या था। जो करीब हजार-पांच सौ शब्द लिखे थे, उसको डिलीट कर दिए और ई- रच डाले।
अब रच डाले तो रच डाले। कोई पढ़े या न पढ़े। हमने तो लिख दिया और इसे पोस्ट भी करेंगे। कौन सा संपादक जी का डर है या ब्यूरो चीफ साहब का कि छपने नहीं देंगे। या कानून का कि गलत छाप रहे हैं। अरे भाई अपने ब्लॉग पर लिख रहे हैं। जो मन में आएगा वो लिखेंगे। बस इतना ध्यान रखेंगे कि हमारी और हमाए देश की छवि न खराब होने पाए।
तो इतना तो लिख डाले हैं। हालांकि इससे पहले एक पोस्ट ठोक डाले हैं। लेकिन वो बहुत मेहनत और ज्ञान वाली पोस्ट है। अब इतना ज्ञान नहीं बचा है हमारे पास। इसलिए यह सब अज्ञानियों वाली पोस्ट भेज रहे हैं। जो पहली पोस्ट है, उसे पोस्ट ही न समझा जाए। इसे ही पहली पोस्ट समझा जाए। श्री गणेश तो इसी से हो रहा है।
आगे एक कोशिश करेंगे कि इस ब्लॉग पर जो पहले-पहल काम किए हैं न, उसे लिखेंगे। हालांकि यह आइडिया कॉपी है अपने अमन सर का। एक हैं हमारे अमन सर। पंडित अमनदीप जी। उन्हीं का। लेकिन देखते हैं, अगर आइडिया अमल में ला पाए तो अमन सर को बता देंगे नहीं तो कोई बात ही नहीं है।
इसके अलावा जब नाम ही रख दिए हैं कि बतरस चौराहा है तो जीवन में जो कुछ भी घटित होगा, व्यक्तिगत या सामूहिक। अगर लगेगा कि उसे बतरस चौराहा से होकर गुजरना चाहिए, घटित होना चाहिए तो उसे जरूर गुजारेंगे।
तो चलिए, शुरूआत कर ही दिए हैं... तो प्रेम से बोलिए प्रभु श्रीराम चंद्र की... जय। पवनसुत हनुमान की... जय।
।जय श्री गणेश।
😁
ReplyDeleteफिर भी मंदिर वही बनेगा... 😁