ढलती उम्र के बढ़ते कदम
थक-हार कर
अखबार में
इश्तिहार
छानकर
पापा के पैसों से
भेजा
एक आवेदन
अदद-सी नौकरी के लिए
अखबार में।
जा रहा हूं मैं
देने साक्षात्कार
तब से एक
अजीब-सा
परिवर्तन
आ गया है मेरे
व्यवहार में
जैसे मुश्किल है सटीक बता पाना
ट्रेन की रफ्तार
ऐसे ही
मुश्किल है अंदाजा लगा पाना
मन में उभरते विचार
जीवन क्या जिया
अब तक क्या किया
सिर्फ जागा-सोया
और खाया-पिया
बचपन के वे दिन
जब सबसे सुरक्षित जगह थी
मां की गोद
आज अपना एक ठिकाना नहीं
कैसे खेले खेल
विधाता ने
बड़ी मुसीबतों से लड़कर
बचाया
माता-पिता ने
पूरी की मेरी हर जरूरत
पूजने योग्य है उनकी मूरत
क्या
मैंने जो कर्म किए हैं अब तक
दिखला पाउंगा
अपनी सूरत
नहीं पता मुझे।
बस इतना मैंने ठाना है।
जीवन में कुछ कर के दिखाना है।
चुका तो नहीं सकता उनका कर्ज
लेकिन
एक बेटा होने का
फर्ज निभाना है।
जिसने खुद भूखा रहकर
मेरा पेट भरा है
पूरी करने को जरूरत मेरी
लेकर कर्ज धरा है
उस बाप के लिए
एक दिन
अवकाश का बनाना है।
जीवन कठिन है
मगर
अभी चलते जाना है
चलते जाना है।।
Sir apne bahut khoobsurat likha h🌻
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